आयतुल्लाह जवादी आमुली
  • शीर्षक: आयतुल्लाह जवादी आमुली
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  • रिलीज की तारीख: 11:27:18 17-9-1404

सामान्य रूप से विचारक, बुद्धिजीवी और जागरूक लोग अपनी मूल्यवान पुस्तकें और आलेख यादगार के रूप में छोड़ते हैं। ईरान के समकालीन बुद्धिजीवी व दर्शनशास्त्री आयतुल्लाह जवादी आमुली ने भी बहुत ही मूल्यवान पुस्तकें लिखी हैं जो सत्य की खोज करने वालों का मार्गदर्शन कर सकती हैं।

इस बुद्धिजीवी की पुस्तकों पर एक दृष्टि डालने से यह पता चल जाता है कि उनकी मुख्य चिंता, मनुश्य की पहचान और उसके विभिन्न आत्मिक पहुलओं पर दृष्टि डालना थी। जिस प्रकार से कि पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पवित्र कथन में आया है कि जिसने स्वयं को पहचान लिया, उसने अपने ईश्वर को पहचान लिया। इस आधार पर परिणाम यह निकला कि मनुष्य की स्वयं की और अपने अस्तित्व के विभिन्न आयामों की पहचान, ईश्वर की पहचान का कारण बनती है। ईश्वर की श्रेष्ठतम सृष्टि के रूप में मनुष्य बहुत से आत्मिक व व्यक्तिगत पहलुओं का स्वामी होता है और महापुरुषों के कथनानुसार मनुष्य की पहचान के लिए उसके भौतिक बंधनों को तोड़ना और उसकी परतों को हटाना चाहिए ताकि उसके अस्तित्व की वास्तविकता को पहचान सकें।
 
इस प्रकार से आयतुल्लाह जवादी आमुली ने अपनी मूल्यवान पुस्तकों में मनुष्य के विभिन्न आत्मिक आयामों में प्रभाव डालने और इस संबंध में उसकी उचित पहचान को अपने संबोधकों के सामने रखने का प्रयास किया। इस कार्यक्रम के दौरान आयतुल्लाह जवादी आमुली की कुछ विचारधाराओं से परिचित होंगे।
महिला, एक मूल्यवान व महत्त्वपूर्ण अस्तित्व है जिसके बारे में विभिन्न मतों व विचारधारओं ने भिन्न दृष्टिकोण बयान किए हैं। इन विचारधाराओं में से कुछ ने तो महिलाओं के योग्य स्थान से उसे गिरा दिया और पुरुषों से उसके महत्त्व को कम दर्शाया और कुछ लोगों ने महिला के स्थान को गुम ही कर दिया। आयतुल्लाह जवादी आमुली ने इस्लामी कथनों और आयतों से लाभ उठाते हुए महिलाओं के वास्तविक स्थान को बहुत ही सुन्दरता से स्पष्ट किया है। उन्होंने ज़न दर आइनये जलाल व जमाल नामक पुस्तक में महिलाओं के महत्त्वपूर्ण अस्तित्व को बहुत ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया है।
 
आयतुल्लाह जवादी आमुली ने अपनी पुस्तक के पहले भाग में समाज व परिवार में क़ुरआन की दृष्टि में महिलाओं की भूमिका और स्थान की समीक्षा की है। वे बयान करते हैं कि समस्त महिलाओं व पुरुषों की सृष्टि का उद्देश्य एक ही है और महिला व पुरुष व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे से श्रेष्ठ नहीं हैं। इस प्रकार से जिस तरह पुरुष मानवीय परिपूर्णता व अध्यात्म के ऊंचे दर्जे तक पहुंच सकते हैं, उसी प्रकार महिलाएं भी परिपूर्णता के उस शिखर तक पहुंच सकती हैं। आयतुल्लाह जवादी आमुली स्पष्ट करते हैं कि ईश्वरीय दूत तीन मुख्य आधारों अर्थात सृष्टि की पहचान, प्रलय की पहचान और ईश्वरीय दूतों की पहचान के आधार पर लोगों को निमंत्रण देते थे किन्तु उन्होंने पुरुषों के लिए विशेष आमंत्रण पत्र नहीं भेजा बल्कि उन्होंने इन्हीं तीनों आधारों से महिलाओं को भी निमंत्रण दिया। पवित्र क़ुरआन के सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 108 में पैग़म्बर की ज़बानी कहा गया है कि आप कह दीजिए कि यही मेरा रास्ता है कि मैं दूरदर्शिता के साथ ईश्वर की ओर निमंत्रण देता हूं और मेरे साथ मेरा अनुसरण करने वाला भी है और पवित्र व आवश्यकतामुक्त ईश्वर है मैं अनेकेश्वरवादियों में से नहीं हूं।
आयतुल्लाह जवादी पुस्तक के अन्य भाग में सूरए तहरीम की आयत क्रमांक 10 से 12 की ओर संकेत करते हुए पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में उदाहरणीय महिलाओं का उल्लेख करते हैं। हज़रत ईसा मसीह की माता हज़रत मरियम और फ़िरऔन की पत्नी आसिया जैसी इतिहास की महान व आदर्श महिलाएं हैं कि जो ईश्वर का आदेश मानने वालों के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं। आयतुल्लाह जवादी आमुली बल देते हैं कि यह उदाहरणीय महिलाएं महिलाओं के लिए आदर्श थीं बल्कि उनका व्यवहार और क्रियाकलाप पुरुषों के लिए भी आदर्श था।
 
आयतुल्लाह जवादी आमुली धार्मिक जानकारियों के साथ अंतर्ज्ञान व परिज्ञान के अथाह सागर के स्वामी भी है कि जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान के सोते से बहुत से प्यासों को तृप्त किया। वे परिज्ञान व शौर्य को एक दूसरे से जुड़ा समझते हैं। यह इस अर्थ में है कि इस्लामी परिज्ञान मनुष्य के अलग थलग पड़ने और सब कुछ छोड़ने का कारण नहीं बनता बल्कि यह अंतर्ज्ञानी को समाज की ओर भेजता है ताकि वह लोगों का ईश्वर की सही पहचान और धर्म की ओर मार्गदर्शन करे। इस प्रकार से आयतुल्लाह जवादी आमुली बड़ी ही सूक्षमता के साथ इस्लामी परिज्ञान को झूठे और ढोंगी परिज्ञान से कि जो मनुष्य को संसार से अलग थलग करने और सब कुछ छोड़ने का अह्वान करता है, अलग करते हैं। आयतुल्लाह जवादी आमुली की एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक हमासा व इरफ़ान अर्थात शौर्य व परिज्ञान है जिसका मुख्य विषय शौर्य व परिज्ञान तथा इन दोनों का संबंध है। आयतुल्लाह जवादी आमुली ने इस पुस्तक के दूसरे भाग में आशूर की ऐतिहासिक घटना का वर्णन किया है। वे आशूर की ऐतिहासिक घटना के अमर होने के रहस्य को इस प्रकार बयान करते हैं कि करबला की घटना के अमरत्व होने का रहस्य भी कि जो मुख्य रूप से एक दिन से भी कम में और इस्लामी धरती के एक छोटे से भाग में घटी, यही है कि करबला की ऐतिहासिक घटना का सदैव से इतिहास में श्रेष्ठ स्थान रहा है और यह इस्लामी इतिहास के सिर पर मुकट की भांति चमक रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस शौर्य गाथा को रचने वाले सामान्य लोग नहीं थे बल्कि यह वही लोग थे जिन्होंने विशुद्ध परिज्ञान को अपने शौर्य व साहसी युद्ध से मिश्रित कर दिया था।
आयतुल्लाह जवादी आमुली शकुफ़ाइये अक़्ल दर परतवे नहज़ते हुसैनी अर्थात हुसैनी आंदोलन की छत्रछाया में बुद्धि का निखार नामक पुस्तक में, इमाम हुसैन के आंदोलन को उनकी चिंतन का परिणाम बताते हैं। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है, लेखक ने आशूरा के आंदोलन की विशेषताएं विशेषकर इस आंदोलन में बुद्धि की भूमिका को स्पष्ट करने का प्रयास किया और परिणाम स्वरूप मनुष्य में तत्वदर्शिता और चिंतन मनन की प्रक्रिया को जागरूक किया। चूंकि प्रत्येक क्रांति उसके नेता के विचारों और दृष्टिकोणों से प्रतिबिंबित होती है, इसीलिए अपने ईश्वरीय आंदोलन के मार्ग में इमाम हुसैन की करनी व कथनी में चिंतन करने से वह बातें व वह शब्द मिलते हैं जिनमें ज्ञान व परिज्ञान के अथाह सागर निहित हैं।
इस पुस्तक के आरंभ में लेखक हज़रत इमाम हुसैन के आचरण व व्यवहार को बयान करते हैं और बल देते हैं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने नाना की भांति लोगों को विशुद्ध इस्लाम धर्म व पवित्र क़ुरआन की ओर आमंत्रित करते थे। उसके बाद लेखक इमाम हुसैनी अलैहिस्सलाम के आंदोलन के सिद्धांत बयान करता है और इस संबंध में लोगों में क्रांति की ज्वाला भड़काने और इमाम हुसैन की गतिविधियों को बयान करता है। उसके बाद लेखक इमामों की संतानों और हुसैनी आंदोलन के प्रभावों को जारी रखने में धर्मगुरूओं व धार्मिक केन्द्रों के स्थानों व उनकी भूमिकाएं जो बुद्धि का निखार हैं, बयान करते हैं।
 
अल्लामा जवादी आमुली ने इस्लाम धर्म की पहचान और उसकी कल्याणमयी भूमिका को भी कई स्थानों पर बयान किया है। उन्होंने इस चीज़ को बयान करने के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका अनुवाद है धर्म से मनुष्य की आशा। महान बुद्धिजीवी जीवन में धर्म और मनुष्य के लोक परलोक के कल्याण की पूर्ति में धर्म को अतिआवश्यक समझते हैं। उदाहरण स्वरूप ख़्वाजा नसिरुद्दीन तूसी और अबू अली सीना का मानना है कि आदर्श नगर या कल्याणमयी समाज के लिए धर्म और उसकी शिक्षाओं की आवश्यकता होती है। आयतुल्लाह जवादी धर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि ईश्वरीय धर्म, क़ानूनों, नियमों व आस्थाओं के उस समूह को कहते हैं जिसे ईश्वर ने लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजा है ताकि मनुष्य इसकी छत्रछाया में अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण करे और अपनी स्वतंत्रता को सुनिश्चित करे। वे परिपूर्णता की पहचान में बुद्धि के परिपक्व न होने के दृष्टिगत कहते हैं कि मनुष्य के कल्याण की आपूर्ति और मार्दर्शन के लिए बुद्धि पर्याप्त नहीं है बल्कि बुद्धि को कुछ वास्तविकताओं की पहचान और उसके विकास के लिए धर्म की आवश्यकता होती है क्योंकि कुछ विषयों की पहचान में बुद्धि असहाय है और उसे सत्य व असत्य की पहचान में समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह धर्म ही है जो बुद्धि को जीवन की व्याख्या, संसार की पहचान और सृष्टि व प्रलय की पहचान में सहायता प्रदान करता है। प्रोफ़ेसर जवादी आमुली इस विषय का अधिक विवरण देते हुए कहते हैं कि उदाहरण स्वरूप मनुष्य की बुद्धि, ईश्वर के कुछ गुणों को जैसे समअ अर्थात सुनना, बसर अर्थात देखना, ईश्वरीय संवाद और इसी प्रकार प्रलय की वास्तविकता और प्रलय में क्या होगा या प्रलय कैसे आएगी और ईश्वरीय आदेशों को पूर्ण रूप से समझ नहीं सकती। एक ओर मनुष्य की बुद्धि की सीमित्ता और दूसरी ओर मनुष्य के लिए क़ानून का आवश्यक होना, इस बात को आवश्यक करता है कि ईश्वर भी एक क़ानून निर्धारित करे और क़ानूनों को लागू करने के लिए पैग़म्बर भेजे ताकि वह लोगों के मध्य क़ानून लागू करके ईश्वर और बंदों के मध्य संपर्क स्थापित करें और उनके कल्याण को सुनिश्चित करें।
 
आयतुल्लाह जवादी आमुली का मानना है कि लोगों के लिए धर्म के समस्त महत्त्व के अतिरिक्त धर्म के सबसे महत्त्वपूर्ण लाभों में से एक यह है कि जीवन अर्थ प्रदान करता है और उसे ख़ालीपन व लक्ष्यहीन होने से मुक्त करता है। इस प्रकार के प्रश्न हम कहां से आएं हैं, हम क्यों आए हैं और हमें कहां जाना है? अर्थात हमारी सृष्टि किसने की, हमारी सृष्टि का लक्ष्य क्या है और हमें मर के कहां जाना है। यह वह मूल प्रश्न हैं जिनका उत्तर केवल धर्म ही के पास है। आयतुल्लाह जवादी आमुली इस संबंध में कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि बुद्धि के पास इन प्रश्नों का पर्याप्त उत्तर नहीं है। इस प्रकार से यह प्रश्न अब भी मौजूद है कि मनुष्य अपने जीवन के सही अर्थ को समझने में असहाय है। धर्म के लाभों में से एक यह है कि धर्म, मनुष्य की सृष्टि, प्रलय और उसकी सृष्टि के लक्ष्य को बयान करके उसके जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं। आयतुल्लाह जवादी मनुष्य की आइडियालाजी में धर्म की भूमिका के बारे में कहते हैं कि धर्म के सार को इस वास्तविकता में खोजा जा सकता है कि धर्म वास्तव में संसार को देखने का प्रयास है, एक अर्थपूर्ण वास्तविकता के रूप में है।
 
आयतुल्लाह जवादी आमुली ने इन्तेज़ारे बशर अज़ दीन अर्थात धर्म से मनुष्य की अपेक्षाएं नामक पुस्तक में, समाज में ईश्वरीय व धार्मिक क़ानूनों के पाये जाने की आवश्यकता पर बल दिया है। वे लिखते हैं कि चूंकि मनुष्य की प्रवृत्ति सामाजिक जीवन व्यतीत करने की है और बिना क़ानून के समाज, वैसा ही समाज होगा जिसमें मनुष्य की आत्ममुग्धता के कारण तनाव और मतभेद फैलता है। एक अंधे क़ानूनी समाज में व्यवस्था के न होने के कारण मनुष्य की जानी व माली सुरक्षा छिन जाती है, इस प्रकार से कि मनुष्य को एक ऐसी परंपरा व क़ानून की आवश्यकता होती है जिसके सामने समस्त लोग नतमस्तक हों और जिसके क्रियान्वयन की छत्रछाया में समाज में क़ानून और सुरक्षा स्थापित हो। स्वाभाविक रूप से एक समाज के क़ानून को ऐसे लोगों की ओर बनाया जाना चाहिए जिसे समाज के लोग श्रेष्ठ और उत्तम समझते हों। इसीलिए ईश्वर ने पैग़म्बरों को भेजा ताकि वह लोगों को ईश्वर की उपासना व आज्ञापालन की ओर प्रेरित करें और उन्हें पापों से रोकें।